कविताएँ
अडोनिस
गीत
हमारे पलकों पर घुँघरू
और शब्दों की प्राणांतक घुटन,
और मैं भाषा के मैदान में,
धूल से बने घोड़े पर सवार योद्धा
मेरे फेफड़े मेरी कविताएँ हैं और आँखें किताब हैं,
और मैं, शब्दों के खोल में,
फेन के चमकते तट पर,
एक कवि जिसने गाया और मर गया
छोड़ कर यह झुलसता शोकगीत
कवियों के सामने,
आकाश के छोर पर उड़ते परिंदों के लिए
गीतों के मुखौटे
अपने इतिहास के नाम पर,
कीचड़ में धँसे देश में,
भूख जब उसे काबू कर लेती है
वह खा लेता है अपना माथा
मर जाता है
मौसम कभी पता नहीं लगाते वजह का
वह मर जाता है गीतों के अनंत मुखौटों के पीछे
एकमात्र वफादार बीज,
वह अकेला रहता है जीवन की गहराई में
भाषाओं के लिए गीत
ये सभी भाषाएँ, ये टुकड़े,
खमीर हैं
भावी शहरों के लिए
संज्ञा, क्रिया, अक्षर का ढाँचा बदल दो;
कह दो :
कोई पर्दा नहीं है हमारे बीच
न कोई बाँध
और खुश करो अपने दिलों को फातिहों से
इच्छा की मदिरा से
और उनके बंद आसमानों के उत्साह से
पाप की भाषा
मैं अपनी विरासत जलाकर कहता हूँ :
"मेरी भूमि अक्षत है, और मेरी जवानी में कोई कब्र नहीं है"
मैं उठ जाता हूँ भगवान और शैतान दोनों से ऊपर
(मेरा मार्ग भगवान और शैतान के रास्तों को लाँघ जाता है)
अपनी किताब में उसके पार चला जाता हूँ
दैदीप्यमान वज्र की शोभायात्रा में,
सब्ज वज्र की शोभायात्रा में,
पाप की भाषा को खत्म करते हुए
चिल्लाते हुए :
"मेरे बाद न कोई स्वर्ग होगा, न स्वर्ग से निष्कासन"
एक औरत का चेहरा
मैं एक औरत के चेहरे में रहता हूँ
जो एक लहर में रहता है
जिसे उछाल दिया है ज्वार ने
उस किनारे पर खो दिया है जिसने बंदरगाह
अपनी सीपियों में
मैं उस औरत के चेहरे में रहता हूँ
हत्यारी है जो मेरी,
जो चाहती है होना
एक जड़ आकाशदीप
मेरे खून में बहते हुए
पागलपन के अंतिम छोर तक
कुछ भी नहीं बचता पागलपन के सिवाय
मैं घर की खिड़कियों पर अब झलक पाता हूँ
अनिद्र पत्थरों के बीच की नींद से दूर,
चुड़ैल के सिखाए बच्चे की तरह
कि समुद्र में रहती है एक औरत
अपने इतिहास को अँगूठी में समेटे हुए
और वह तब प्रकट होगी
जब चिमनी में लपटें बुझने लगेंगी
और मैंने इतिहास को देखा स्याह झंडे में
जंगल की तरह आगे बढ़ते हुए
मैंने कोई इतिहास नहीं लिखा
मैं, क्रांति की आग की लालसा में जीता हूँ
उनके सर्जनात्मक जहर के जादू में
मेरी मातृभूमि इस चिंगारी के सिवाय कुछ भी नहीं है,
अनंत समय के अँधेरे में यह रोशनी
अनुवाद : सरिता शर्मा
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अगर ‘उग्र’ की रचनाएँ पूर्वाग्रहीत पाठकीयता का त्याग कर पढ़ी जाएँ तो यह कहने में जरा भी हिचक नहीं हो सकती कि वे अपने समय के बृहत्तर राष्ट्रीय आंदोलनों के सृजन-संविधि थे।
उनके समय की शायद ही कोई समस्या रही हो जो उनकी कलम की जद से बची हो। ‘उग्र’ को हनना और हुमकना दोनों ही आता था। वे अपने को ‘तुलसीदास का वंशज’ मानते थे।
तुलसीदास ने भी ‘हुमकि लात कूबर पर मारा’ था, इसलिए उग्र ने अपने समाज के हर ‘कूबड़’ पर जमकर लात जमाई थी। पूरा द्विवेदी-युग उन्हें ‘हरबोंग’ लेखक मानता था।
वे थे भी अजब तंजनिगार। उनकी लेखनी की नियति में दीनता-प्रदर्शन करना लिखा ही नहीं था। उनका कहना था कि क्षमा-याचना वे करें जो ‘परदा के पापा’ थे। पापा ही नहीं पापी भी थे।
‘परदा’ में चाकलेट पापियों से क्षुब्ध होकर ही उन्होंने ‘चाकलेट’ कहानी लिखी। ‘चाकलेट’ के दिनों में ही, वे ‘वीरकन्या’ और ‘प्यारे’ भी लिख रहे थे।
...ये सभी रचनाएँ ‘उग्र’ की मनःसंरचना, उनकी लेखकीय प्रकृति और उनकी भाषिक लोकवाद की आख्यायिका हैं।
- भवदेव पांडेय
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आलोचना
पंकज पराशर
करुणा की चित्रलिपि में जीवन का गद्य
(महादेवी वर्मा के गद्य साहित्य पर एकाग्र)
संस्मरण
उमेश चौहान
नवाबों के शहर में केदारनाथ सिंह और मैं
व्यंग्य
सुशील यादव
नाच न जाने...
शशिकांत सिंह ‘शशि’
लूट इंडिया लूट
कविताएँ
माधव कौशिक
अमरसिंह रमण
विमर्श
भक्ति के बृहद आख्यान में 'सत्पुरुषों' की पीड़ा
बजरंग बिहारी तिवारी
कहानियाँ
आशुतोष
रामबहोरन की अनात्मकथा
मिथिलेश प्रियदर्शी
लाल बुरांस तो एक बहाना है
रविंद्र आरोही
खाली दिनों में लोकबाबू की जंगलगाथा
उपासना
एक जिंदगी... एक स्क्रिप्ट भर!
अरविंद
दुःस्वप्न
आलोचना
राहुल सिंह
अज्ञेय : दिक् और काल के बरक्स
निबंध
वियोगी हरि
विश्व-मंदिर
बाल साहित्य-कहानी
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
छोटी सी बात
कविताएँ
चंद्रेश्वर
मुंशी रहमान खान
शुभेंदु मुंड
सीमस हीनी
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कविताएँ
वृंदावनलाल वर्मा
विनोद
है विनोद बिन जीवन भार
है विनोद बिन जड़ संसार
है विनोद बिन बुद्धि असार
है विनोद बिन देह पहार
है विनोद से बुद्धि विकास
ज्ञान-तंतुओं से परकास
शक्ति कवित्व इसी से निकली
ईश भावना इस से उजली।
सूरज के घोड़े
सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं
टापों की खटकार सुनाकर तम को मार भगाते हैं
कमल-कटोरों से जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं
सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं।
तमिस्रा हुई गगन में लीन
तमिस्रा हुई गगन में लीन
दिशा ने पाई दृष्टि नवीन।
उदित हुई जब पूर्व के द्वार
पहिन कर ऊषा मुक्ता हार।
सजाया नेत्रों ने मृछु मार्ग
पलक प्रिय बने पाँवड़े पीन।
समीरित सौरभ ने ली तान
बजी पुलकित मुकुलों की बीन।
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ
सती की चिता की दीपशिखा पर जो लहराती रहती हैं
निर्बल के कण-कण में भी जो ज्योति जगाती रहती हैं
बलिदानों की ध्वजा निरंतर जो फहराती रहती हैं
उन बलिदानों से बल पाऊँ उन वरदानों से भर पाऊँ
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ।
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